अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। (ग़ज़ल निदा फ़ाज़ली साहब ) अंतरा -१ पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है, पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है, अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं ... अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम . हैं .. रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। अंतरा -२ वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से. वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से. किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं .. किसको मालूम कहा के है किधर के हम हैं ... रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। अंतरा (३ ) चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब। चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब। सोचते रहते हैं किस रहगुज़र के हम है. सोचते रहते हैं किस रहगुज़र के हम है. रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं ... अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफर के हम हैं। सन्दर्भ -सामिग्री...