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कलिसंतरणोपनिषद मन्त्र संख्या आठ व्याख्या सहित पुनर्नारद : पप्रच्छ भगवनकोअस्य विधिरिति |

कलिसंतरणोपनिषद मन्त्र संख्या आठ व्याख्या सहित 

पुनर्नारद : पप्रच्छ भगवनकोअस्य विधिरिति | 


  शब्दार्थ : पुनर -दोबारा ; नारद : --नारद मुनि ; पप्रच्छ -पूछा ; भगवन -हे भगवन ;  इसकी (महामंत्र जप ,पाठ  )की क्या विधि है ?

नारद मुनि अभी संतुष्ट  नहीं है इसलिए वह एक बार फिर पूछते हैं  स्वामी इसके जप का ,इस मंत्र पाठ का जो विधि विधान है वह मुझे फिर बतलाओ। नारद जानते है सत युग में कुशा का आसन बिछाकर वृक्ष के नीचे किसी नदी के किनारे  बैठकर तप करना पड़ता है। नदी भी जहां तक संभव हो गंगा और यमुना में से ही एक हो जहां नर -नारायण के ध्यान में ६०,००० बरसों तक बैठा जाए। उस युग में ध्यान की यही विधि थी। 

त्रेता में शुद्ध घी जितना अधिक से अधिक हो सके ,एवं समिधा की सूखी लकड़ी अन्य सामिग्री की प्रचुरता के साथ ही यज्ञ किया जाता है। 

नारद जानते हैं कलियुग में कोई भीं सामिग्री शुद्ध नहीं है। प्रत्येक चीज़ में प्रत्यक्ष  अप्रत्यक्ष  मिलावट और संदूषण है। केवल प्रभु का नाम ही इस प्रदूषण से परे है जो जीव को भव सागर के पार उतार सकता है। 

द्वापर युग में साधना के लिए तीर्थ स्थानों पर जाकर वहां साधुसंतों के मार्गदर्शन में भगवान् के दर्शन करने होते थे जहां उनका श्री विग्रह (श्री मूर्ती )रहती थी। वास्तव में आप श्री मूर्ती से बात कर सकते थे। इसलिए नारद के लिए यह उचित ही था के वह कलियुग के लिए क्या विधान है ध्यान योग तप का वह ब्रह्मा जी से पूछे जो उनके पिता भी हैं गुरु भी। (नारद ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं )

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