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"असली आढ़ती" यही राजनीतिक धंधेबाज़ है जो इस देश में आत्महत्या को मज़बूर किसानों का भी शोषण करने उन्हें बरगलाने दिशा-च्युत करने का काम पूरे मन से कर रहें हैं

                                                                                                                              "असली आढ़ती" यही राजनीतिक धंधेबाज़ है जो इस देश में आत्महत्या को मज़बूर किसानों का भी शोषण करने उन्हें बरगलाने दिशा-च्युत करने का काम पूरे मन से कर रहें हैं। इन्हें ज़रा भी लिहाज़ नहीं है गरीब किसान की। इनमें से राहुलनुमा किसान तो ये भी नहीं जानते की खरीफ  और रबी की फसल के  उत्पाद क्या हैं। आलू की कंपनियां  और गन्ने के कारखाने खुलवाने का वायदा करने वालों के झांसे में न आकर छोटा किसान ,छोटी जोत का बड़े दिल वाला भोला किसान यह जान ले के पुरानी मंडी आढ़तिये और बिचौलियों के सम कक्ष एक और लाभकारी विकल्प अब उनकी झोली  में आ पड़ा है वह जहां ज्यादा मुनाफ़ा देखें अपना  उत्पाद बेचें।

हो सकता है इनमें से चंद बिचौलिए उन्हें वक्त जरूरत पर कर्ज़ा देते हों और फसल के समय उसकी बड़ी वसूली करते हों।बस यही उनकी मज़बूरी हो इस आढ़तिये तंत्र को बनाये रखने के पीछे।  
"अन्न -दाता" किसान  और अन्नपूर्णा गृहिणी इस देश में आज भी घरेलू आढ़तियों और बाहरियों के मायाजाल में फंसे हुए हैं । इनकी मुक्ति का यही विधायक क्षण हैं। 
दैनिक जागरण में इस विषय का प्रतिपादन संजय गुप्त जी ने बड़ी बे -बाकी से सहज सरल बोधगम्य भाषा (बोली आम आदमी की जुबां )में किया है। 
"आतंकियों की ज़मीन" और "कब जागेगा कर्तव्य बोध" ,देश की अखंडता को हमारी हवा -पानी -मिट्टी की अनदेखी को सामने लाता है वहां भी यही राजनीति के धंधे बाज़ खुला - खेल -फरुख्खाबादी  खेल रहें हैं मैं इनका सरयू तट पर तर्पण करता हूँ। 

एक प्रतिक्रिया अग्र  लेख "किसान हित की फ़र्ज़ी आड़ "/ सम्पादकीय आतंकियों की ज़मीन /कब जागेगा का कर्तव्य बोध पर पर दो टूक (दैनिक जागरण २० सितंबर २०२० )
वीरुभाई                                                                                        । इन्हें ज़रा भी लिहाज़ नहीं है गरीब किसान की। इनमें से राहुलनुमा किसान तो ये भी नहीं जानते की खरीफ  और रबी की फसल के  उत्पाद क्या हैं। आलू की कंपनियां  और गन्ने के कारखाने खुलवाने का वायदा करने वालों के झांसे में न आकर छोटा किसान ,छोटी जोत का बड़े दिल वाला भोला किसान यह जान ले के पुरानी मंडी आढ़तिये और बिचौलियों के सम कक्ष एक और लाभकारी विकल्प अब उनकी झोली  में आ पड़ा है वह जहां ज्यादा मुनाफ़ा देखें अपना  उत्पाद बेचें।

हो सकता है इनमें से चंद बिचौलिए उन्हें वक्त जरूरत पर कर्ज़ा देते हों और फसल के समय उसकी बड़ी वसूली करते हों।बस यही उनकी मज़बूरी हो इस आढ़तिये तंत्र को बनाये रखने के पीछे।  
"अन्न -दाता" किसान  और अन्नपूर्णा गृहिणी इस देश में आज भी घरेलू आढ़तियों और बाहरियों के मायाजाल में फंसे हुए हैं । इनकी मुक्ति का यही विधायक क्षण हैं। 
दैनिक जागरण में इस विषय का प्रतिपादन संजय गुप्त जी ने बड़ी बे -बाकी से सहज सरल बोधगम्य भाषा (बोली आम आदमी की जुबां )में किया है। 
"आतंकियों की ज़मीन" और "कब जागेगा कर्तव्य बोध" ,देश की अखंडता को हमारी हवा -पानी -मिट्टी की अनदेखी को सामने लाता है वहां भी यही राजनीति के धंधे बाज़ खुला - खेल -फरुख्खाबादी  खेल रहें हैं मैं इनका सरयू तट पर तर्पण करता हूँ। 

एक प्रतिक्रिया अग्र  लेख "किसान हित की फ़र्ज़ी आड़ "/ सम्पादकीय आतंकियों की ज़मीन /कब जागेगा का कर्तव्य बोध पर पर दो टूक (दैनिक जागरण २० सितंबर २०२० )

वीरुभाई                                                                   

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