ग़ज़ल -कमांडर निशांत शर्मा 'सुबोध '
(१ )
सफ़र में हूँ सलीके से ,सैंकड़ों राहों पे मैं ,
बंजारों को मंज़िल से प्यार नहीं होता।
(२ )
रूह भर की तसल्ली से लिखा ख़त हूँ मैं ,
पते का जिसे सरोकार नहीं होता।
(३ )
हौसला -ए -हिम्मत बाज़ू में दम रखो ,
बैठ किनारे दरिया पार नहीं होता।
(४ )
देखो तो कैसी रौनक है ग़म की मुझ में ,
कौन कहता है ईद -औ त्यौहार नहीं होता।
(५ )
नफ़े नुक्सान की फ़ज़ीहत में फूंक आया हूँ दूकान ,
अब ज़िंदगी का मुझसे कारोबार नहीं होता।
(६ )
ग़ैरों ने अपनाया मेरे नुख्स -औ -खामियों को ,
अपनों से मुझे अब प्यार नहीं होता।
(७ )
तुम क्या आओगे अब मिलने मुझसे ,
मुझसे तो अब और इंतज़ार नहीं होता।
(८ )
मंदिरों मस्ज़िद में नहीं बसते अब रामोरहीम,
वो कहता तो है पर ऐतबार नहीं होता।
(९ )
मर मिटा सरहद पे फिर कल रात कोई ,
'टुकड़े टुकड़े गैंग' को फिर भी ऐतबार नहीं होता।
(१० )
सुबूत -गैंग को चाहिए फिर सुबूत कोई ,
सरहद पे कोई यूं ख़ाक नहीं होता।
(११ )
अबला पर बला का बल आज़माते हैं वो ,
पौरुष पे जिन्हें ख़ुद अपने ऐतबार नहीं होता।
(१२ )
थपेड़ों ने वक्त के उसे तराशा सुबोध ,
यूं ही तो बस कोई फ़नकार नहीं होता।
(१३ )
कल रात दिखा फिर से खाबों में मुस्कुराता सा ,
हिन्दुस्तान है यारों तारों -तार नहीं होता।
प्रस्तोता :वीरू भाई (वीरेंद्र शर्मा )
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