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ये बौद्धिक गुलाम कुछ स्वतन्त्र चिंतन करना सीखें

ये बौद्धिक गुलाम कुछ स्वतन्त्र चिंतन करना सीखें

मार्क्सवाद के बौद्धिक गुलाम भारतीय कमुनिस्ट(कौमनष्ट ) कोई सा भी खेल खेल सकते हैं। भारतीय लोकतंत्र को बदनाम करने के लिए ये किसी का भी मूर्ती भंजन कर सकते हैं, बशर्ते के राजनीति में उखड़े हुए इनके पाँव कुछ देर के लिए ठहर सकें। इसका  अभिप्राय यह नहीं है के त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा को इन्होनें ही तुड़वाया है पर इनकी विश्वसनीयता इतने निम्न स्तर तक पहुँच चुकी है कि नैतिकता-विहीन इनकी दुरभिसंधि किसी भी पतन तक पहुँच सकती है। इनके कलंकित इतिहास में भारतीय मन को पीड़ा पहुंचाने वाले अनेक धत्  कर्म हैं  . विघटन पैदा करना इनकी प्रवृत्ति है। पाकिस्तान बनाने में इनका नैतिक समर्थन जेहादी लोगों  को प्राप्त था। १९६२ के चीनी हमले पर 'मुक्ति सेना मुक्ति सेना आ गई 'कहकर ये अपनी ख़ुशी को कभी छिपाते थे और कभी प्रकट करते थे। 

दरअसल भारत का कोई महान पुरुष इनका आदर्श नहीं है। यदि होता तो कुछ राजनीतिक संगति बैठ सकती थी। तब हिंसा और दमन के प्रतीक लेनिन को इन्हें उधार न लेना पड़ता। भारत धर्मी समाज का विरोध करना इनका  जन्मजात गुण है। स्वाधीनता से पहले इनमें से बहुत सारे अंग्रेज़ों की मुखबिरी करते थे। भारतीय शौर्य कौशल के सर्वोच्च प्रतीक पुरुष नेताजी सुभाषचंद्र बोस इनके लिए 'तोज़ों का कुत्ता' था। महात्मा गांधी साम्राज्यवादियों का दलाल था। शहीदे आज़म भगतसिंह  इनकी दृष्टि में आतंकी है। क्रांतिकारियों का अपमान करने में ये कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। ये सचमुच के बौद्धिक गुलाम हैं। अगर कहीं  नेहरुपंथी कांग्रेस से इनका तालमेल हो जाए फिर तो ये भारतीय लोकतंत्र की दुर्गति करने में किसी से भी पीछे नहीं रहेंगे।लेनिन और स्टालिन और माओ के सामने तो किसी भगवान् की क्या हैसियत है फिर भी हम ईश्वरीय सत्ता से यही प्रार्थना कर सकते हैं कि ये बौद्धिक गुलाम कुछ स्वतन्त्र चिंतन करना सीखें। 

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