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जवाहरलाल नेहरू की ‘सनक’ की 5 अनसुनी कहानियां


सत्ता से बेदखल होने के बाद कांग्रेस पार्टी आजकल खुद को अभिव्यक्ति की आजादी की सबसे बड़ी पहरेदार बता रही है, जबकि उसका इतिहास कुछ और ही कहता है। सच्चाई यह है कि आजादी के बाद नेहरू के समय से लेकर सोनिया गांधी तक गांधी परिवार की तुनकमिजाजियों और तानाशाहियों के मामले भरे पड़े हैं, लेकिन इन्हें बड़ी सफाई से छिपा लिया जाता है। वास्तविकता के एकदम उलट स्कूली किताबों में नेहरू और उनके परिवार के सदस्यों की महानता का गुणगान भरा पड़ा है। न्यूज़लूज़ पर हमने अंग्रेजों से आजादी के फौरन बाद जवाहरलाल नेहरू की करतूतों की लिस्ट तैयार की है, जिनके बारे में जानकर आप समझ जाएंगे कि नेहरू दरअसल देश के अब तक के सबसे तानाशाह और तुनकमिजाज नेता थे। यह भी पढ़ें: जब नेहरू के कारण फुटबॉल वर्ल्ड कप में नहीं जा सका था भारत

1. संविधान का पहला संशोधन

देश में लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी पर पहला हमला आजादी के फौरन बाद हुआ था। नया संविधान लागू होने के करीब डेढ़ साल बाद ही नेहरू को लगने लगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक-टोक होनी चाहिए। 8 जून 1951 को उन्होंने संसद में पहला संविधान संशोधन पास करवाकर इसके बदले में शर्तें जोड़ दीं। जैसे कि राष्ट्रहित, कानून-व्यवस्था और अपराध के लिए उकसाना। दरअसल यही शुरुआत थी, जिसके बाद देश में बोलने की आजादी एक तरह से सरकारों के कब्जे में आ गई। इसके उलट अमेरिकी संसद थी, जिसने अपना पहला संविधान संशोधन यह पास किया था कि फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन पर कोई रोकटोक लगाने का अधिकार संसद के पास नहीं होगा। यह भी पढ़ें: नेहरू की वो रंगीन कहानियां जो आपसे छिपा ली गईं

2. मजरूह सुल्तानपुरी को जेल

आजाद भारत के इतिहास में यह बात बड़ी चालाकी से छिपा ली गई है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इतने बड़े अहंकारी थे कि उन्होंने अपने खिलाफ कविता लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी को जेल में बंद करवा दिया था। देश के सबसे मशहूर गीतकारों में से एक मजरूह को एक कविता लिखने के जुर्म में करीब 2 साल जेल में काटने पड़े थे। ये घटना 1949 की है जब एक मुशायरे में मजरूह सुल्तानपुरी ने नेहरू के सामने ही एक कविता सुनाई। कविता सुनते ही नेहरू गुस्से से तमतमा उठे और वहां से चले गए। करीब 2 घंटे बाद मुंबई पुलिस ने देशद्रोह के आरोप में मजरूह को गिरफ्तार कर लिया। उन पर आठ गैर-जमानती धाराएं लगाई गईं और आर्थर रोड जेल में अपराधियों के साथ एक काल कोठरी में डाल दिया गया। तब देश में ये हालात थे कि किसी ने नेहरू के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की। डेढ़ साल बाद नेहरू ने उन्हें संदेश भिजवाया कि “तुम माफी मांग लोगे तो जेल से छोड़ दिए जाओगे।” खुद्दार मजरूह ने माफी नहीं मांगी, बाद में कोर्ट से उनकी जमानत हुई और मरते दम तक यह केस उनके सिर पर चलता रहा। कविता कुछ इस तरह से थी:
मन में जहर डॉलर के बसा के
फिरती है भारत की अहिंसा।
खादी की केंचुल को पहनकर
ये केंचुल लहराने न पाए।
अमन का झंडा इस धरती पर
किसने कहा लहराने न पाए।
ये भी कोई हिटलर का है चेला
मार लो साथी जाने पाए।
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू
मार ले साथी जाने न पाए।

3. फिल्मों के सेंसर में सबसे आगे

चाचा नेहरू की फिल्मों में भी बहुत रुचि थी। बताते हैं कि वो खुद नजर रखते थे कि किसी फिल्म में ऐसी कोई बात न जाने पाए, जिससे लगता हो कि जनता में उन्हें लेकर कोई नाराजगी है। नेहरू सेंसर बोर्ड के कामकाज में सीधी दखलंदाजी रखते थे। इनमें से ज्यादातर मामले उस वक्त की मीडिया में न आने के कारण छिपे रह गए। डायरेक्टर रमेश सहगल की फिल्म काफिला का एक सीन नेहरू की आपत्ति के बाद काटना पड़ा था। इसी तरह साहिर लुधियानवी के एक गाने से ‘पैसे का राज मिटा देना’ लाइन हटानी पड़ी थी। 1961 में अमर रहे ये प्यार नाम की फिल्म आई थी, जिसमें कवि प्रदीप के गाने को हटा दिया गया था। उसकी लाइनें थीं:
हाय सियासत कितनी गंदी
बुरी है कितनी फिरकाबंदी
आज ये सब के सब नर-नारी
हो गए रस्ते के भिखारी
1958 में आई फिल्म- फिर सुबह होगी के दो गानों पर नेहरू के इशारे पर ही पाबंदी लगा दी गई थी। इनमें से एक ‘रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा’ को आप नीचे सुन सकते हैं।

4. हारमोनियम पर पाबंदी लगाई गई

नेहरू ने बी वी केसकर को अपना सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया था। वो 1952 से 1962 तक मंत्री पद पर रहे और इस दौरान उन्हें आकाशवाणी पर हिंदी फिल्मी गानों, क्रिकेट कमेंट्री और हारमोनियम बजाने पर पाबंदी लगाने के लिए जाना जाता है। दरअसल वो जानते थे कि नेहरू को हारमोनियम पसंद नहीं है। 30 के दशक में नेहरू ने अपने एक भाषण में सार्वजनिक रूप से यह बात कही भी थी। यही कारण है कि आजादी के बाद भी आकाशवाणी पर हारमोनियम से पाबंदी नहीं हटी। यहां तक कि तब के कई बड़े कलाकार इस बारे में बार-बार नेहरू से अनुरोध करते रहे।

5. पटेल और राजेंद्र प्रसाद से जलन

नेहरू इतने तंगदिल इंसान थे कि ऐसे किसी शख्स को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे, जो उनकी हां में हां न भरता हो। उनके बड़ा दिल वाला होने की जितनी कहानियां सुनी-सुनाई जाती हैं वो या तो झूठ हैं या सिर्फ पब्लिसिटी के लिए किया गया दिखावा। खास तौर पर सरदार बल्लभ भाई पटेल से उनकी जलन सर्वविदित है। 15 दिसंबर 1950 को जब मुंबई में पटेल की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई तो नेहरू ने बाकायदा सरकारी आदेश जारी करके सभी मंत्रियों से कहा कि वो अंतिम संस्कार में न जाएं। यहां तक कि तब के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भी प्रधानमंत्री दफ्तर ने पटेल के अंतिम संस्कार में न जाने का सुझाव भेजा। इसी तरह जब 1960 में राजेंद्र बाबू का निधन हुआ तब भी उन्होंने नए राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को उनके अंतिम संस्कार में नहीं जाने को कहा था।

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