सलोक भगत कबीर जीउ के (आदि गुरुग्रन्थ साहब ,सलोक ५३ -५६ )
कबीर हरना दूबला इहु हरिआरा तालु ,
लाख अहेरी एकु जीउ केता बंचउ कालु।
कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि निर्मल नीरु ,
बिन हरि भगति न मुकति होइ इउ कहि रमे कबीर।
कबीर मनु निरमलु भइया जैसा गंगा नीरु ,
पाछै लागो (पाछै) हरि फिरै कहत कबीर कबीर।
कबीर हरदी पीअरी चूंनां ऊजल भाइ ,
राम सनेही तउ मिलै दोनउ बरन गवाइ।
भावार्थ एवं सारतत्व :
कबीर जी कहते हैं इस साधारण हिरण (जीवात्मा )को दोलाइत करने के लिए कितने ही ललचौंहें (मायावी पदार्थ ,मनभावन वस्तुएं )इस धरती पर हैं (हरा भरा ताल यहां माया का आकर्षण है ).बेचारा वह अकेला जीव है ,लाखों -लाख शिकारी उसे फांसने को जाल बिछाये हुए हैं ,वह कब तक बच पायेगा (संकेत है के नाम का कवच ही उसे इस ललचावे से बचा सकता है ).
कबीर कहते हैं कि यदि कोई गंगा के किनारे ही अपना घर बना ले ,तो नित्य -प्रति निर्मल नीर का पान कर सकता है (अर्थात हरि - भक्ति में मग्न जीव नित्य उसका मधुर आस्वादन करता है। माना जाता है गंगा जल इसलिए पवित्र है उसके किनारे संतों ने तप किया है मन्त्र सिक्त जल है गंगा का। मंत्र की शक्ति जल में आ जाती है यह वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी सिद्ध हुआ है। ).
भाव यह है हरि भक्ति के बिना किसी की भी मुक्ति नहीं होती ,यह उपदेश देकर कबीर चलते बने।
कबीर जी कहते हैं कि मन जब गंगा की तरह निर्मल हो जाता है ,तो स्वयं परमात्मा जीव को पुकारता हुआ उसके पीछे -पीछे घूमता है। (सन्देश यहां यही है मन का भांडा रामनाम की सिमरनि से साफ़ रखिये आगे उसकी मर्जी है रहम है लेकिन वह होगी उन्हीं पर जिनका मन निर्मल है निरंजन है। ).
आखिर में कबीर जी कहते हैं :हल्दी पीली होती है। चूना सफ़ेद किन्तु जो इन दोनों रंगों से अतीत होता है वही राम के प्यार में लीन हो पाता है। (यहां किसी की चमड़ी के रंग ,वर्ण आदि ,जातीय अभिमान से मुक्त रहने की बात है ,पीले सफेद कपड़े सम्प्रदाय विशेष के प्रतीक हैं इनसे परे जाने वाला ही ,निर्मल चित्त वाला मन ही, प्रभु प्रेम का अधिकारी बन सकता है। इनमें उलझा हुआ नहीं।
Bhagatan key bhaktini hoyey baithi, Brammah key brammbhani, Kahat Kabir suno ho santo, Yeh sab akath kahani, Maya, yeh sab ...
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कबीर हरना दूबला इहु हरिआरा तालु ,
लाख अहेरी एकु जीउ केता बंचउ कालु।
कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि निर्मल नीरु ,
बिन हरि भगति न मुकति होइ इउ कहि रमे कबीर।
कबीर मनु निरमलु भइया जैसा गंगा नीरु ,
पाछै लागो (पाछै) हरि फिरै कहत कबीर कबीर।
कबीर हरदी पीअरी चूंनां ऊजल भाइ ,
राम सनेही तउ मिलै दोनउ बरन गवाइ।
भावार्थ एवं सारतत्व :
कबीर जी कहते हैं इस साधारण हिरण (जीवात्मा )को दोलाइत करने के लिए कितने ही ललचौंहें (मायावी पदार्थ ,मनभावन वस्तुएं )इस धरती पर हैं (हरा भरा ताल यहां माया का आकर्षण है ).बेचारा वह अकेला जीव है ,लाखों -लाख शिकारी उसे फांसने को जाल बिछाये हुए हैं ,वह कब तक बच पायेगा (संकेत है के नाम का कवच ही उसे इस ललचावे से बचा सकता है ).
कबीर कहते हैं कि यदि कोई गंगा के किनारे ही अपना घर बना ले ,तो नित्य -प्रति निर्मल नीर का पान कर सकता है (अर्थात हरि - भक्ति में मग्न जीव नित्य उसका मधुर आस्वादन करता है। माना जाता है गंगा जल इसलिए पवित्र है उसके किनारे संतों ने तप किया है मन्त्र सिक्त जल है गंगा का। मंत्र की शक्ति जल में आ जाती है यह वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी सिद्ध हुआ है। ).
भाव यह है हरि भक्ति के बिना किसी की भी मुक्ति नहीं होती ,यह उपदेश देकर कबीर चलते बने।
कबीर जी कहते हैं कि मन जब गंगा की तरह निर्मल हो जाता है ,तो स्वयं परमात्मा जीव को पुकारता हुआ उसके पीछे -पीछे घूमता है। (सन्देश यहां यही है मन का भांडा रामनाम की सिमरनि से साफ़ रखिये आगे उसकी मर्जी है रहम है लेकिन वह होगी उन्हीं पर जिनका मन निर्मल है निरंजन है। ).
आखिर में कबीर जी कहते हैं :हल्दी पीली होती है। चूना सफ़ेद किन्तु जो इन दोनों रंगों से अतीत होता है वही राम के प्यार में लीन हो पाता है। (यहां किसी की चमड़ी के रंग ,वर्ण आदि ,जातीय अभिमान से मुक्त रहने की बात है ,पीले सफेद कपड़े सम्प्रदाय विशेष के प्रतीक हैं इनसे परे जाने वाला ही ,निर्मल चित्त वाला मन ही, प्रभु प्रेम का अधिकारी बन सकता है। इनमें उलझा हुआ नहीं।
Bhagatan key bhaktini hoyey baithi, Brammah key brammbhani, Kahat Kabir suno ho santo, Yeh sab akath kahani, Maya, yeh sab ...
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