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एकहि भाव सकल जग देखि ,बाहर परे सो होइ बिबेकी

"जीव : ब्रह्में : परा " -जीव ही ब्रह्म है बाहर कोई अन्य ब्रह्म नहीं दूसरा कोई अन्य ब्रह्म नहीं जीव की सत्ता से अलग।
जीव अंतिम सत्यता है आभास ,प्रतिबिम्ब तुच्छ आदिक नहीं है परमसत्ता जीव ही है जीव ही राम है। बीजक में जीव शब्द बार- बार आया है जो हमारे ही निज स्वरूप का बोधक है आत्मस्वरूप है। बीजक जैसे छिपा हुआ धन बताता है गुप्त गूढ़ संकेतों  में ऐसे ही कबीर कहते हैं मेरे बीजक का हरेक शब्द जीव को उसकी अंतिम सत्यता बतलाता है।

एकहि भाव सकल जग देखि  ,बाहर परे सो होइ बिबेकी 

चारों और दसों दिशाओं में मोह माया का ही साम्राज्य फैला हुआ है। 

जो इससे (मोह माया से )बाहर आ जाए वही विवेकी है वह जो मोह छोड़े ,सूक्ष्म वासनाओं का भी परित्याग करे वेश -धारी साधुओं की तरह मोटा मोटा मोह माया का स्वरूप ही न छोड़े सूक्ष्म वासनाओं का भी नाश करे। आसक्ति छोड़े तब विवेकी है।

एकहि भाव सकल जग देखि 

ये मान लिया गया यह कहावत प्रचलन में आई सारे जगत में ब्रह्म व्याप्त है सब एक ही है। जड़ चेतन बकरी घास बिष्टा सब एक ही है। जड़ चेतन का विवेक ही घास चरने चला गया हो जैसे। प्रश्न यह है ,सब ब्रह्म ही है या कुछ माया भी है ?

जड़ और चेतन का विवेक न होना ही तो अविद्या है -कबीर 

माटी भी ब्रह्म है पानी भी ब्रह्म है गोबर भी ब्रह्म है पातर भी ब्रह्म है आत्मा भी ब्रह्म है। यह विवेक कैसे है। जड़ अलग है चेतन अलग है।

बाहर परे सो होइ विवेकी -बाहर को  जो परे करे,  अलग करे वह विवेकी है।  

अपने आप को सबसे अलगालो। विवश होकर के चल दो। अकेले इस संसार में आये हैं अकेले ही जाएंगे। इस संसार में जो कुछ मिलता है छूट जाता है।

विषय भोग के फंद  छुड़ाई 

तहाँ जाए जहां काट  कसाई। 

कुटिल गुरुओं का जंजाल आज भी है स्वरूप विवेक जहां मिट जाए हीन भावना जहां आ जाए ,तुम कर ही क्या सकते हो तुम तो अंश हो प्रतिबिम्ब हो जो कुछ करेगा ऊपर वाला ही करेगा तुम कर ही क्या सकते हो।ऐसे जो कहे बतलाये ऐसे ही गुरुओं को कबीर ने कसाई कहा है यह कसाईपन है महापाप है मानव मात्र समान है कोई ऊंच  नहीं कोई नींच  नहीं।

एकहि  पंडित सभै पढ़ाया  -तुम तुच्छ हो जो समर्थ है वह कहीं और है आत्म विवेक जगाया ही नहीं के तुम समर्थ हो आत्म विवेक जगाओ तुम सर्व -समर्थ हो। विवेकी बनो। भेड़िया धसान में मत फंसो हर जगह नीर क्षीर विवेक करो। 

सुमिरन करहिओ राम का  ,छोड़ो  दुःख की आस ,

सुख का जो चेहरा है उसमें दुःख भरा है सुख की आसा छोड़ो।

नाना प्रकार के अज्ञान में वासनाओं में तुम  पिस जाओगे अंतर्मुख होना अपनी आत्मा की ओर  लौटना राम है। बाहर 'काम' है अंदर 'राम' है। पांचों विषयों से मन को हटाकर अंतर्मुखी बनो। बेहरूनी काम कर लो लेकिन चित्त एकाग्र करने का अभ्यास करो। अंतर्मुखी होने का अभ्यास करो। स्वरूप ज्ञान के बिना सबका चित्त जलता है। तुम स्वयं महान हो तुच्छ नहीं हो अपने 'राम' स्वरूप को समझो अंतर्मुख ,उन्मुख होवो। वरना विषय वासनाओं में मन अटका रहेगा।

16 Ramaini-17(6.7.95)-ok, SADGURU ABHILASH SAHEB, BIJAK PRAVCHAN, KABIR PARAKH SANSTHAN, ALLAHABAD, ...

सन्दर्भ -सामिग्री :https://www.youtube.com/watch?v=mRpzF9xePA8

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